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आरती ने आखिर क्यों डॉक्टरी छोड़ IPS बनने का लिया फैसला, जाने इनकी पूरी कहानी

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इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस बीएचयू में स्त्री रोग वॉर्ड में डॉक्टर आरती सिंह के सामने बच्चों को जन्म देने वाली मां का ज्यादातर पहला सवाल यही होता था की बच्चा बेटा है या बेटी? उन्हें बच्चे का स्वास्थ्य जानने के बजाय यह उत्सुकता होती थी कि बच्चे का लिंग क्या है? आरती इस सवाल के पीछे की मानसिकता को समझने का प्रयास करती रहीं। उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर के ग्रामीण परिवेश में पले-बढ़े होने के बाद भी आरती को कभी लैंगिक भेदभाव का शिकार नहीं होना पड़ा था। इसलिए ऐसी टिप्पणियां सुनना उनके लिए आश्चर्यजनक था। आरती ऐसे सोच को बदलना चाहती थीं। और उन्होंने UPSC में जाने का फैसला किया। और 2 साल बाद अपनी कड़ी मेहनत से 2006 में डॉ आरती UPSC, CSE पास कर ली। उन्होंने नवजात लड़कियों के भाग्य को बदलने के मकसद से भारतीय पुलिस सेवा का चुनाव किया। आरती बताती हैं कि, लड़के की चाह रखने का एक मुख्य कारण, उसकी सुरक्षा को लेकर है।

अधिकांश माता-पिता का यह सोेच हैं कि समाज में लड़कियों सुरक्षित नहीं है। उनकी सुरक्षा का एक मात्र तरीका शादी है यही सोच दहेज और बाल विवाह जैसे स्थितियों को सामने लाती है। इस समस्या से निपटने के लिए मैंने UPSC ज्वॉइन किया। आरती हर कदम पर उन विचारों और धारणाओं को तोड़ती चली गई, उन्होंने साबित कर दिया कि लिंग का अंतर और कुछ नहीं बल्कि लोगों की सोच है। डॉक्टरी छोड़ जब आरती UPSC की तैयारी शुरू की, तब पड़ोसियों एवं रिश्तेदारों ने उनके माता-पिता से कहने लगे उसे पढ़ने की अनुमति क्यों दे रहे हैं या अच्छा रिश्ता ढूंढने के बजाय उनके फैसले को क्यों बढ़ावा दे रहे हैं? उस वक्त उनके माता-पिता ने जवाबों से सब को चुप करा दिया था। आरती कहती हैं, मेरे पिता को हमेशा से मुझ पर विश्वास रहा है। वह चाहते थे कि जीवन मे मैं वह सब करूं जो वह नहीं कर पाए। उनके इस समर्थन की वजह से ही मैं इस काबिल बन पाई।

जब मुझे बताया गया कि महिला अधिकारियों समेत कुछ पुरुषों ने भी इस नक्सल प्रभावित इलाके में जाने से इनकार कर दिया है, तो मैं डरी नहीं। यह एक ऐसा इलाका है, जहां पुलिस-नक्सली मुठभेड़ आम है। वर्ष 2009 में चुनाव के समय उनके ज्वॉइन करने से पहले ही नक्सलियों ने 17 पुलिसकर्मियों को मार दिया था। लेकिन आरती डरी नहीं। उन्होंने न केवल चुनाव कराए, बल्कि गोला बारूद भी बरामद किए। आरती बताती हैं, मैं गढ़चिरौली के सुदूर इलाके में तैनात थी। वहां, मॉनसून के समय पुल बंद हो जाता था। बाहरी दुनिया से संपर्क करना मुश्किल था। टेलीफोन, बिजली सब कट हो जाता था। न्यूजपेपर भी नहीं मिल पाता था। लगातार मिलती धमकियों के बीच काम करना काफी मुश्किल रहा। 3 वर्ष तक यहाँ बेहतर ढंग से काम को संभाले रखा।

केंद्र एवं राज्य सरकार द्वारा उन्हें सम्मानित भी किया था। उन्हें प्रतिष्ठित ‘डीजी इन्सिग्निया पुरस्कार’ भी दिया। फिलहाल, वह अमरावती में पुलिस आयुक्त के रूप में तैनात हैं। वर्ष 2020 में बढ़ते कोरोना संक्रमण के मामलों को नियंत्रित के लिए उनके अथक प्रयास को सरकार से भी प्रशंसा और मान्यता मिली है। उन्होंने बताया, कई पुलिसकर्मियों के वायरस की चपेट में आने से, मेरी टीम समेत बाकी सब का भी मनोबल टूट गया। मैंने एक IPS अधिकारी की बजाय, एक डॉक्टर के रूप में गंभीरता को समझने का प्रयास किया। व्हाट्सएप के फॉरवर्ड मैसेज एवं टिकटॉक पर भी अंकुश लगाया, क्योंकि ये धार्मिक सद्भाव को खतरे में डाल रहे थे। वायरस को लेकर अफवाह फैलाने वाले लोगों को गिरफ्तार किया गया।

इसके अलावा, उन्होंने बंद पड़े पावरलूम को फिर से शुरू करवाना। मालेगांव में अधिकांश लोगों की नौकरियां इसी पर निर्भर थीं। आरती को नौकरी की वजह से अक्सर दोनों बेटियों (4 और 10 साल की) से दूर रहना पड़ता है। हालांकि उनके लिए यह आसान नहीं रहा। अक्सर उन्हें यह एहसास दिलाया जाता है कि एक महिला अधिकारी, पुरुष अधिकारी की तरह बेहतर काम नहीं कर सकती है। जब वह SP के पद पर तैनात थीं, तो एक पत्रकार ने कहा था कि ‘उन्हें उनसे ज्यादा उम्मीद नहीं है।’ नौकरी के दौरान, आने वाली कठिनाइयां एवं जोखिमो के बाद भी वह पीछे नहीं हटी। आरती बताती हैं, उसी पत्रकार ने महामारी के बाद मुझसे मुलाकात की और कहा कि जिस तरह मैंने कार्य किया, और कोई नहीं कर सकता था। मानसिकता में यह बदलाव वही है, जिसके लिए मैं यहां तक आई थी।

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